प्रो. ललित तिवारी

विशेषः पर्यावरण, प्रकृति और मानव के अभीष्ट संबंध का परिचायक है श्री नंदा देवी महोत्सव

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श्रीनन्दा देवी महोत्सव उत्तराखंड की सांस्कृतिक समृद्धि का परिचायक है। लोगों में इस महोत्सव को लेकर गजब का उत्साह देखने को मिलता है। आयोजन कमेटी भी हर साल इस महोत्सव को भव्य से भव्यतम बनाने की पुरजोर कोशिश करती है। नैनीताल में इस बार श्रीनन्दा देवी महोत्सव को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान दिलाने की दिशा में श्रीराम सेवक सभा तन-मन-धन से जुटी हुई है। इस वर्ष नैनीताल में श्रीनन्दा देवी महोत्सव 20 से 27 सितम्बर तक आयोजित किया जाएगा। इसकी तैयारियां जोरों से चल रही हैं।
श्री नन्दा देवी महोत्सव के बारे में यह लेख हमें डीएसबी परिसर, कुविवि नैनीताल के वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर ललित तिवारी ने भेजा है। प्रो. तिवारी श्रीरामसेवक सभा सहित तमाम सामाजिक कार्यो में बढ़चढ़ कर प्रतिभाग करते हैं। - Editor

प्रो. ललित तिवारी
नैनीताल। प्रकृति को जोड़ता हुआ श्री नंदा देवी महोत्सव उत्तराखंड की कुलदेवी तथा सांस्कृतिक समृद्ध परंपरा है जिससे भद्रा पद की अष्टमी को मनाया जाता है। यह पर्व लोगो को जोड़ने के साथ खुशी एवम स्नेह आशीर्वाद देने वाला है।
शक्ति की प्रतीक एवम हिमालय की शक्ति को समाहित करता यह पर्व पर्यावरण तथा प्रकृति एवं मानव के अभीष्ट संबंध को भी दिखाता है कि पर्यावरण के संरक्षण तथा परिस्थितिकी के सतत विकास के लिए जरूरी है। नंदा देवी पर्वत भारत का दूसरा बड़ा तथा विश्व का 23 पर्वत है जिसकी ऊंचाई 7817 मीटर है। श्री नंदा देवी महोत्सव अल्मोड़ा में 17वी शताब्दी तो नैनीताल में 1903 में प्रारंभ हुआ तथा श्री राम सेवक सभा 1926 से इसे मानव समुदाय के सहयोग से आयोजित कर रही है। प्रकृति को शक्ति का रूप देती नंदा देवी हिमालय के साथ वनस्पतियों को जोड़कर लोक पारंपरिक कलाकारों द्वारा मूर्त रूप दिया जाता है जो कला के साथ प्रकृति पूजन को दर्शाता है।

नंदा सुनंदा की मूर्ति निर्माण में प्रयोग होने वाली वनस्पति भी देती हैं संदेश
श्री नंदा सुनंदा की मूर्ति निर्माण में जिन वनस्पति का प्रयोग होता है वो पारिस्थितिकी में घुलनशील तथा संरक्षण के साथ सतत विकास का संदेश देते हैं। मां नंदा सुनंदा की मूर्ति निर्माण में कदली केले का तना प्रयोग में लाया जाता है जो देव गुरु बृहस्पति के साथ लक्ष्मी का निवास है तथा मूसा पैराडिसियाका वनस्पति नाम एवम जल में डालते ही घुल जाता है। बांस जिसे बमबुसा प्रजाति है वो पवित्र एवं जल में घुलनशील है। इसके अलावा रूई जिसकी बाती बनाते हैं तथा कपड़ा जिसे कपास से बनाते गोस्सीपियम आर्बोरियम वानस्पतिक नाम है जो आसानी से घुलता है तथा पवित्र है।

प्राकृतिक रंगों का ही होता है इस्तेमाल
मूर्ति निर्माण में प्राकृतिक रंगों के अलावा आसन भृंगराज जिसे आर्टमेशिया अनुआ कहते हैं से बनाते हैं जो औषधीय है। इसके अलावा मां नंदा सुनंदा को डहलिया फूलो की माला तथा ब्रह्मकमल सौसरिया ओबोवलता चढ़ाया जाता है जो उच्च हिमालय इलाकों में मिलता है।
मां नंदा सुनन्दा की मूर्ति निर्माण पर ब्रह्म मुहूर्त में प्राण प्रतिष्ठा से शक्ति विराजती है जो प्रकृति के प्रति अगाध प्रेम के साथ पर्यावरण एवं मानव के घनिष्ठ रिश्ते को दर्शाता है की मानव प्रकृति के साथ बेहतर संबंध रखे तथा पर्यावरण का ध्यान रखे। नंदा महोत्सव में पौधारोपण होना भी प्रकृति संरक्षण का स्पष्ट संदेश देता है।
गेहूं से बने हलवा ही प्रसाद के रूप में बांटा जाता है जोे प्रकृति संरक्षण और परंपराओं को पर्यावरण से सीधे जोड़ता है।

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