हुजूर! बौखलाइए मत…. दुख तब होता है जब 25-30 साल के हानहारों के चेहरे पर विपत्तियों के भाव झलकते हैं….
एक उम्र में पेट पालना भी मुश्किल हो जाए तो आदमी अपने को बेकार ही कहता है। देश की बड़ी आबादी अभी परंपराओं से बंधी है, पिता जीवित रहने तक बेटों की जिम्मेदारी निभाता है, गांवों में बड़ी आबादी पेट भरने लायक खेती से कमा रही है। पारंपरिक कामों में मन मारकर भी बहुत से लोग लगे पड़े हैं। मध्यमवर्गीय परिवारों के पास पुश्तैनी घर और थोड़ी सी जमीन बची है, जिसे वह खतरे के समय के लिए पनाहगाह के रूप में देखते रहते हैं। यही कारण है कि ये फौज अभी सड़कों पर नहीं दिख रही है।………वैसे तो शहरों में नौकरी करने वाले 70 फीसदी लोगों के घरों में एक-दो युवा बेरोजगार हैं, गांवों में पढ़े लिखे बेकारों की लाइन लंबी होती जा रही है। थोड़ी सी सरकारी नौकरियों के लिए डिग्रियों की डिमांड बढ़ती जा रही है।
कुछ ही दिनों पहले एक झटके में हजारों शिक्षामित्रों से छोटा सा काम भी छीन लिया गया। नए उद्योग खुलना तो दूर पुराने भी तेजी से बंद हो रहे हैं, उद्योगों से बाहर हुए कामगरों के आंकड़े भयावह हैं। सरकारी विभागों में ठेकेदारी पर काम बढ़ता जा रहा है, नाममात्र की तनख्वाह और 12-14 घंटे की नौकरी के लिए भी पढ़े -लिखों की अपार कतार है। कम पढ़े लोगों के लिए मजदूरी जुटाना भी कठिन हो गया है। श्रम मंडियों में हर सुबह आधे से अधिक मजदूर काम न मिलने पर बैरंग घर को लौट जाते हैं।
……देश में आज तक किसी भी सरकार ने बेरोजगारी से निजात दिलाने के लिए नीति तो क्या कभी गंभीरता से चर्चा तक नहीं की। सरकारें हर चीज पर टैक्स लेती हैं, उसके बदले शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसी मूलभूत जरूरतों की जिम्मेदारी तक नहीं लेतीं। तो सरकार हम विकसित देशों की श्रेणी में कैसे शामिल हो गए हैं???
रोजी-रोटी दे न सके जो, वो सरकार………
चंद्रशेखर जोशी
-लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। हल्द्वानी में रहते हैं