धूल, मिट्टी, गंदगी में बसेरा, दिनभर की लानत, न घर का पता और न परिवार का। ये कौन हैं, कहां के हैं, कैसे जीवन बसर करते हैं, इसबारे में सोचना भी पाप से कम नहीं है। इनका सरकार के पास भी कोई रिकार्ड नहीं। ये इंसान बेघर, बेदर, बेबस क्यों हैं..
…रेलवे लाइनों, नदी-तालाब किनारे बसी मानव बस्तियों की कहीं गिनती भी नहीं होती। यही कोई 17-18 साल का धिकी सुबह पौ फटते ही प्लास्टिक का बोरा कंधे पर लेकर कूड़ा बीनने जाता है। दिनभर का कूड़ा ही उसके परिवार की जिंदगी है। इस शहर से पहले वह कहां रहता था समझना मुश्किल है। मां-बाप के बारे में भी खास पता नहीं। दो बहनें और दो भाई हैं। बाप का पता नहीं। दिनभर में वह 40-70 रुपए तक का कबाड़ बीन लेता है। यही परिवार का पेट भरता है।
…लोगों की शक भरी निगाह से बचते हुए करीब 25 किमी रोज शहर की गलियां छानता है। रात में पुलिस और बस्ती के लड़कों से बचते-बचाते भोजन खरीद लेता है। ऐसी ही जिंदगी लाखों लोगों की है, जो मानव के रूप में कहीं दर्ज नहीं हैं। इनको बड़ा अपराधी भी नहीं माना जाता, चोरी-चकारी में इनकी पिटाई आम बात है। ये चोरी पेट भरने को करते हैं, इससे ज्यादा इनके बस की बात नहीं है। आंखों का पानी इस कदर मर चुका है कि इन बच्चों को जलील करने और देखने में कई लोगों को आनंद आता है… इनकी दीनता इस व्यवस्था की ही देन है।
…इस आबादी को कोई घुसपैठिया भी नहीं बताता। इस जमात का जाति-धर्म पर भी खास बंटवारा नहीं है। इनके कोई खास त्योहार भी नहीं होते। घुमंतु जीवन जीना मजबूरी है। छोटे-मोटे काम जहां चल गए, वहीं अपना डेरा डाल लिया। खैर बातें बहुत हैं, बाद में भी करते रहेंगे, लेकिन सवाल ये कि समाज हर क्षेत्र में बहुत आगे बढ़ गया, एक समुदाय इतना पीछे कैसे चला गया। मानव आबादी जानवर से भी बुरी हालत में क्यों रहती है।
–कभी यहां भी दिवाली के दीप जलें, कभी यहां भी ईद की खुशियां बटें…
चंद्रशेखर जोशी, हल्द्वानी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)