कैरियर को लेकर परेशान

गांव का लड़का और शहरी आईआईटियन

उत्तराखण्ड करियर नैनीताल
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रिश्तेदार का बेटा जब परिवार पर बोझ बन गया

चंद्रशेखर जोशी
हल्द्वानी। एक लड़का गांव से निकला। निकलना उसकी मजबूरी थी। गांव के नजदीक स्कूल इंटर तक था। लड़का परिवार से सौ किलोमीटर दूर पहुंचा डिग्री की पढ़ाई करने।
ण्ण्ण्यही कोई 20.22 साल पहले की बात रही होगी। रमेश ने इंटर साइंस से पास किया थाए सो शहर के डिग्री कालेज में बीएससी में एडमीशन लिया। कालेज पहुंचा तो चुनाव की बातें होती थीं। रमेश ने सोचा कि विधायक के चुनाव तो पिछले साल ही हुए थे। कुछ दिनों बाद समझ में आया कि कालेज में भी चुनाव होते हैं। इसे छात्रसंघ कहते हैं।
ण्ण्ण्घरवालों ने बताया था कि शहर में एक रिश्तेदार रहते हैं। रमेश ढूंढखोज कर एक दर्जन केले और बिस्किट का पैकेट लेकर उनके घर पहुंच गया। रिश्तेदार एलआईसी में बाबू थेए अपना मकान था, स्कूटर भी था। रमेश ने सभी बड़ों के पैर छूए, लेकिन किसी ने खास तवज्जो नहीं दी। रमेश बिना कुछ खाए बाहर निकल गया। बाद में पता चला कि उनका बेटा भी बीएससी करता है। एक दिन वह कालेज में मिला तो रमेश उससे नमस्ते कर बैठा। इस पर वह अपने दोस्तों के साथ बेतरतीब हंसा। ये बात भी रमेश को खटक गई। कुछ दिनों बाद कालेज में रमेश के भी अपने जैसे दोस्त बन गएए लेकिन शहरी लड़के इनसे बातें नहीं करते थे। गांव से आए लड़कों के कपड़ों की बड़ी मजाक बनतीए चेहरा भी जरा अजीब सा रहता।
रिश्तेदार के बेटे के चार.पांच दोस्त थे। वह एक.दूसरे को आईआईटियन कहते थे। ये लड़के कालेज में अलग ग्रुप में रहते और मोटी.मोटी किताबें थामे रहतेे। कई महीनों तक रमेश को कुछ समझ नहीं आया। एक दिन रमेश ने अपने दोस्त से पूछ लिया कि ये आईआईटियन कौन सी जाति हुईए मेरा रिश्तेदार तो दूसरी जाति का ह, फिर उनका बेटा आईआईटियन कैसे हो गया। दोस्त जरा ज्यादा समझदार रहा होगा, उसने बताया कि आईआईटी इंजीनियरिंग होती है। उसकी तैयारी करने वाले अपने को आईआईटियन कहते हैं।
ण्ण्ण्गांव से गए लड़के अंग्रेजी में पैदल थे। उनको माइनस, प्लस, मल्टीप्लाई का अर्थ भी समझ नहीं आता। वह कमरे में जाकर सवाल देख कर अनुमान लगाते थे। उनकी हालत देख शहरी लड़कों ने उन्हें अंग्रेजी फिल्म देखने का सुझाव दिया। गांव वालों ने इसे सही मान लिया। अंग्रेजी सीखने के चक्कर में तीन लड़के रुपए मिलकार एक दिन पिक्चर हाल में अंग्रेजी फिल्म का मॉर्निंग.शो देखने पहुंच गए। हॉल के अंदर घुसते ही माजरा समझ आया तो तीनों मुंह छिपाते कमरे की ओर निकल भागे। गणित के चिन्ह याद करने और शहर घूमने में आधा साल बीत गया। जेबें खाली, रोज खिचड़ी का पकवान। भविष्य का डर सताता सो अलग। रमेश ने छोटे बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया। इससे अंग्रेजी के ज्ञान में इजाफा होने लगा। अब कक्षा में प्रोफेसरों की बातें भी समझ आने लगीं।
बीएससी पहले साल में नंबर कम आए] लेकिन गांवों से आए सभी लड़के पास हो गए। रिश्तेदार के लड़के ने पहला साल ड्राप कर दिया और आईआईटी की तैयारी में जुटा रहा। रमेश का कमरा भी उसी मोहल्ले में था। कमरा भी क्या कहेंए पहले उसमें गाय रहती थी। पहला मानव किराएदार रमेश ही पहुंचा। उसकी हालत देख मकान मालिक ने 40 रुपए महीने किराए में कमरा दे दिया। इसपर रिश्तेदार और भी नाक.भौंहें सिकोड़ने लगे। हालांकि रमेश दूसरी बार कभी उनके घर नहीं गयाए लेकिन जब कभी रिश्तेदारों से रास्ते में मुलाकात होती तो वह मुंह मोड़ कर निकल लेते। रमेश को रिश्तेदारों से नफरत सी हो गई।
बीएससी में ड्राप करने का अर्थ भी बाद में पता चलाए लेकिन रमेश को अच्छा नहीं लगा। एकदिन उसने फिर रिश्तेदार के लड़के से कह दिया कि तुमने ड्राप करके अच्छा नहीं किया। इसपर वह जोर से हंस दिया। बाद में पता चला कि उसने अगले साल भी ड्राप कर दिया। बीएससी ड्राप कार आईआईटी की तैयारी करना उस समय बड़ी इज्जत की बात होती। तब इंजीनियरिंग के लिए एमएनआर की परीक्षा भी होती थीए लेकिन सारी तैयारी के बाद भी वह किसी परीक्षा में पास नहीं हो सका। अगले साल पिता ने बेटे को तैयारी के लिए दिल्ली भेज दिया। इस बात के भी बड़े चर्चे थे। कालेज के छात्र कहते कि बीएससी करके क्या होगा, कोचिंग करने गए लड़के तो चार.पांच साल बाद बड़े इंजीनियर बन जाएंगे। अधिकतर तो विदेशों में चले जाते हैं। इन बातों को गांव वाले लड़के किसी सपने की तरह सोचते थे और अपने को कोसते थे।
ण्ण्ण्रमेश एमएससी करने लगा पर रिश्तेदार का बेटा किसी परीक्षा में नहीं निकला। बाद में उसने बीए किया। परिवार वालों ने अब दूसरी बातें करनी शुरू कर दी। वह मोहल्ले में कहते कि बेटा अब आईएएसए पीसीएस की तैयारी करेगा। इसके लिए आर्ट साइड सही रहती है। इतने साल विज्ञान, गणित पर माथापच्ची करने वाला युवक अब इतिहास, राजनीति शास्त्र की किताबें पढ़ने लगा। गांव से आए लड़के भी अब समझदार हो गए थे। रिश्तेदारों की इन बातों पर वे बहुत हंसते थे। खैर दिमाग में एक उम्मीद भी रहती कि हो सकता है कि बड़ा अधिकारी बन जाए। तब रमेश ने कहीं दूर कमरा ले लिया था। उसका ट्यूशन का धंधा भी चल पड़ा। अब रिश्तेदारों से मुलाकात नहीं होती, उनकी तरफ ध्यान देने की फुर्सत कहां।
ण्ण्ण्साल बीते किसी ने बताया कि रिश्तेदार का बेटा बीमार पड़ गया है। रमेश उसे देखने चला गया। घर में प्रवेश करते ही उसकी मां मिलीए उसने बेटे से नहीं मिलने दिया और कह दिया कि वह सो रहा है। मोहल्ले वालों से पूछा तो किसी ने बताया कि उसकी मानसिक स्थिति ही गड़बड़ हो गई है। उसे दिल्ली.मुंबई भी दिखाया गया। घर वालों के बहुत रुपए खर्च हुएए लेकिन बेटे की हालत नहीं सुधरी।
ण्ण्ण्रमेश एमएससी करने के बाद किसी दूसरे शहर में नौकरी करने चला गया। सालों बाद उसका पुराने शहर में लौटना हुआ। वहां पता चला कि रिश्तेदार का बेटा पागल हो चुका ह, वह बिस्तर में ही पड़ा रहता है। रमेश की नौकरी लगी, शादी हुई, बच्चे हो गए। रिश्तेदार का बेटा परिवार पर बोझ बन गया।
ण्ण्ण् बात समझ आती है कि वह लड़का बुरा नहीं थाए मेहनती भी था। समाज और परिवार ने उसे ऐसे झूठे सपने दिखाए कि वह हमेशा के लिए स्वप्नलोक में खो गया।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, हल्द्वानी में रहते हैं।
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