पलायन एक चिन्तन.
प्रमोद साह
मैं एक खंडहर ..!
एक घर, आशियाना था तुम्हारा ।
मेरे खंडहर होने की कहानी,
तुम्हारे बेशर्म होने से ज्यादा पुरानी नहीं है।
तुम्हें तो मालूम भी नहीं, मां के गर्भ में जब तुम थे,
मुसीबत में थी, मां तुम्हारी !
तब मां का सहारा कौन था ?
कहां पाती थी,.. मां सुकून !
पिता तुम्हारे जब फौज में थे, और युद्ध था मैदान में
उनकी सुरक्षा का संदेश, घुघूती कहां पहुंचाती थी।
यहीं तो आती थी, तुम से जुड़ी हर बात ।
तुम अब, जब छोड़ चुके हो घर .!
रोज द्रौपदी का सा चीरहरण हो रहा है.।
गिर रही हैं पटाले..!
तुम चाहते हो, मैं बन जाऊं धृतराष्ट्र ..।
अपनी पहचान मिटा दूं..!
नहीं, ऐसा नहीं होगा हरगिज..
मैं सिर्फ पत्थर नहीं हूं !
मेरे सीने में दफन है, अब भी वह ख्वाब,
जो तुम्हारी मां ने देखे थे.।
भूल जाऊं कैसे? कैसे बेवफा बन जाऊं !
तुम आज टूटी हुई छत देखकर शर्माते हो…!
तुम्हें मालूम नहीं, मेरी बुनियाद कितनी गहरी है।
बेशक कहो,….. खंडहर..।
है मगर वही घर, तुम्हारा..!
सिर्फ पत्थर नहीं,
इतिहास है तुम्हारा !
लेखक पुलिस अधिकारी हैं।
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