कुछ अच्छी परिपाटियां जो भविष्य के लिए अच्छा संकेत
शेखर बेंजवाल
हल्द्वानी। हमारे समाज में रिटायरमेंट का मतलब होता है बुढापे के आगमन की सरकारी घोषणा हो जाना। रिटायरमेंट के बाद ज्यादातर बच्चे तो यह मान बैठते हैं कि अब मां-बाप उन पर बोझ बनने वाले हैं। लेकिन इस सामान्य अवधारणा के विपरीत कुमाऊं मंडल के लोक निर्माण विभाग के मुख्य अभियंता बीसी बिनवाल पिछले दिनों 31 मार्च को जब रिटायर हुए तो उनके बच्चों ने लीक से हटकर जो कर दिखाया, उसने इंजीनियर बिनवाल को जीवन की नई पारी की शुरुआत की अनुभूति तो करवाई ही, साथ एक ऐसी अच्छी परिपाटी की शुरुआत भी की जो भविष्य में सेवाओं से सेवानिवृत्त होने वाले लोगों को यह दिलासा देती रहेगी कि सेवानिवृति उनके बुढ़ापे के आगमन व उपेक्षा की शुरुआत नहीं, अपितु जीवन के इस नए पड़ाव में उनके भावभीने स्वागत की भी साक्षी है। बिनवाल की सेवानिवृति पर मुंबई के एक बैंक में कार्यरत उनकी बेटी ने एक होटल में सरप्राइज पार्टी का आयोजन किया। मम्मी-पापा के अलावा इस पार्टी की जानकारी सभी नजदीकी रिश्तेदारों को भी थी और दफ्तर के स्टाफ को भी और ये लोग पार्टी में आमंत्रित भी थे। इस सरप्राइज पार्टी के दिन बेटी ने मां-पिता के सामने प्रस्ताव रखा कि चलो, आज होटल में खाना खाया जाए। माता-पिता और बेटी ने ज्योंही होटल के हॉल में कदम रखा तो हॉल की बत्ती गुल हो गई और कुछ मिनट में जब बत्ती लौटी तो हॉल में मौजूद लोग सेवानिवृत बिनवाल व उनकी पत्नी का खड़े होकर तालियों की गड़गड़ाहट के साथ स्वागत कर रहे थे। खैर किसी भी ऐसी पार्टी के कायदे के अनुसार इस पार्टी में भी भोजनादि, बिनवाल के सानिध्य में बिताए गए समय के अनुभवों का बंटवारा आदि सब कुछ हुए, बेटा चूंकि छुट्टी न मिलने के कारण अमेरिका से न आ सका तो उसने वीडियो क्रन्फ्रेंसिंग से अपने अनुभव साझा किए, लेकिन सबसे अविस्मरणीय था बिनवाल के बचपन से अब तक के जीवन के सफर के चित्रों का स्लाइड शो। न जाने बेटी कब से इन्हें संजो रही थी कि पापा रिटायर होंगे तो उस वक्त ये एक दस्तावेज की तरह काम आएंगे।
इससे पहले मुझे ऐसी ही अच्छी परिपाटी का साक्षात्कार हिमाचल प्रदेश में भी हो चुका है। वहां यह स्थापित परंपरा है कि राज्य के शहरों में कार्यरत गांव को कोई व्यक्ति जिस दिन रिटायर होता है तो सारा गांव बसों, कारों में सवार होकर उस दिन उसके दफ्तर में पहुंचता है। गांव के लोग रिटायर व्यक्ति को फूल-मालाओं से लाद देते हैं। ढोल-नगाड़ों के बीच शहर में से होते हुए सब लोग वाहनों में सवार होते हैं और उस व्यक्ति को गांव में लाते हैं। उसके बाद अगले दिन गांव में ग्राम भोज होता है। शायद यह भी एक कारण है कि उत्तराखंड के समान ही भौगोलिक, आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों के बावजूद हिमाचल से पलायन की रफ्तार अपेक्षाकृत कम है। गांव के लोग माटी के बेटे की कद्र समझते हैं और माटी का बेटा भी अपनी माटी का मोल। काश हम भी कुछ ऐसी अच्छी परिपाटियों की शुरुआत कर पाएं, उन्हें आगे बढ़ा पाएं।
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