खूबसूरती पर लग रहे गहरे दाग
चंद्रशेखर जोशी
हल्द्वानी। गर्मी का मौसम आते ही पहाड़ों तबाही शुरू हो जाती है। इस तबाही का बड़ा स्वागत होता है जनाब। सरकार से लेकर पूरा प्रशासनिक अमला पलक-पांवड़े बिछाए रहता है। व्यापारी लार टपकाते हैं। लफंडर मन मसोस कर देखे रहते हैं। मार्च से जून तक चार महीने इस धरती पर भारी पड़ते हैं। सबसे बड़ी है सांस्कृतिक तबाही।
देश के चारों कोनों में संस्कृति बिगाडऩे के अड्डे तैयार हैं। गर्मियों में पहाड़ इसके लिए मुफीद है। जम्मू-कश्मीर आतंक से तबाह हुआ। अरुणाचल और असम की तैयारी चल रही है। उत्तराखंड और हिमाचल में कई सालों से सांस्कृतिक बर्बादी के लिए तैयारियां जोरों पर हैं। बहुत कुछ हो चुका है, जो बचा है उसे जल्द से जल्द चौपट करने की कोशिशें तेज हैं।
उत्तराखंड के नैनीताल और मसूरी शहर गर्मियों में लफंगों के अड्डे बन जाते हैं। इनको बकायदा बुलाया जाता है, इनकी खैरमकदम के लिए पुलिस, प्रशासन और व्यापारी जुटे रहते हैं। इनको पर्यटक कहा जाता है, लेकिन अधिकतर अब पर्यटन के नाम पर अवारागर्दी, अयाशी और अपराध करते हैं।
नैनीताल बहुत छोटा सा शहर है। झील के चारों ओर की परिधि का पैदल चक्कर लगाने में एक घंटा भी नहीं लगता। कटोरेनुमा इस शहर की पहाडिय़ों पर चढऩा बाहरी लोगों के बस की बात नहीं होती, लिहाजा ये विजातीय तत्व तली में ही जमा रहते हैं। सरोवर के चारों ओर अजीब हरकतें होती हैं। अर्द्धनग्न युवक-युवतियों की परेड देखपाना संभव नहीं होता। आधी रात में मालरोड पर मेला लग जाता है। इनारे-किनारे लगी बैंचों पर बैठे युगलों की हरकतों से परिवार के साथ गए लोग आंखें चुराते निकलते हैं।
शहर ठंडा तो है ही, अमूमन यहां बारिश के साथ ओले भी गिरते रहते हैं। लेकिन कितना ही ठंडा हो पर इन युवक-युवतियों को आइसक्रीम ही पसंद आती है। शराब के नशे में बेसुध कई लड़कियां सिगरेट की कस मारती घूमती हैं। इस पर प्रशासन की कोई रोक नहीं। कहा जाता है कि यह खुले विचारों के लोग हैं। पहाड़ के लोग भी सोचते हैं कि देश में ऐसा ही होता होगा। व्यापारियों की ये चांदी कर जाते हैं। होटलों के कमरे सामान्य से चार-पांच गुना अधिक किराए पर उठते हैं, भोजन की कीमत का कोई ठिकाना नहीं। इनके चक्कर में शहर में रोज रहने वाले लोग सब्जी के लिए तरसते हैं।
यहां नौकरी करने वाले लोगों के लिए यह समय किसी मुशीबत से कम नहीं होता। किसी सड़क से वाहन नहीं निकल सकते। स्कूल जाने वाले बच्चों का हमेशा डर सताता है। छोटे बच्चों को लोग घरों में बैठाए रहते हैं, लेकिन किशोर और युवाओं को घर पर रोक पाना संभव नहीं। वह बाहर से आई भीड़ की हरकतों का शिकार बन जाते हैं। नशा और लफंगई उनकी संस्कृति में शामिल होने लगती है। कुछ परिवार गर्मियों के मौसम में परिवार के साथ यहां घूमने के लिए जाते हैं, लेकिन लौट कर अनजाने में एक बेहुदा संस्कृति अपने घर ले जाते हैं।
पर्यटन के लिए विकसित हुए शहरों में यहां के मूल रहवासियों के लिए कोई स्थान नहीं बचा। आसपास के गांव वाले यदि रोज-रोटी कमाने के लिए खाली जगहों पर फड़-ठेले भी लगाएं तो बड़े व्यापारियों और प्रशासन को बहुत अखरते हैं। लघु व्यवसाइयों के पास कोई गलत सामग्री भी नहीं होती। ये चाय-समोसे, बीड़ी, सिगरेट, मौसमी फल, खिलौने जैसी चीजें बेचते हैं। यह सामान बड़ी दुकानों की अपेक्षा बहुत कम दाम पर मिलता है। लेकिन इनपर लाठियां भांजना और सामान कब्जे में लेना, उसे बर्बाद करना पुलिस, पालिका कर्मचारियों के लिए किसी मनोरंजन से कम नहीं होता। इन्हें हटाने के लिए न्यायालय भी एकमत रहते हैं। न्यायाधीशों का भी कहना है कि सड़क किनारे रोजी कमाने वाले शहर को बदसूरत कर देते हैं।
इन शहरों में वाहन खड़ा करने के लिए भी कोई स्थान नहीं है। दिनभर सड़कों पर रेंगते दो पहिया और चौपहिया वाहनों के बीच से बड़ी यात्री बसों का निकलना मुश्किल रहता है।
सीजन के समय वाहनों की खास चेकिंग नहीं होती। शातिर किस्म के लोग वेश-भूषा बदल कर इन इलाकों में पहुंच जाते हैं। वह पूरे इलाकों की रेकी करते हैं और सुनसान जगहों की तलाश में लगे रहते हैं। मौका मिलते ही बदमाश शांत इलाकों में वारदात को अंजाम देते हैं। रास्तों के किनारे जंगलों में लाशें मिलना अब आम हो गया है। अपराधी बाहर हत्या कर इन जगहों में शव ठिकाने लगाते हैं। आसपास के जंगल शराब की बोतल, प्लास्टिक के गिलास और विविध थैलियों से पट गए हैं।
प्रकृति की इस खूबसूरत धरोहर को धनपतियों के हाथों उजाडऩे की पूरी छूट मिली है। पहाड़ की सभ्यता और संस्कृति पर यह पर्यटन कलंक से कम नहीं है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, हल्द्वानी में रहते हैं।
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