नैनीताल। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने निचली अदालत से फांसी की सजा पाए दो आरोपियों की सजा को सन्देह का लाभ देते हुए रद्द करते हुए निचली अदालतों को नसीहत दी है कि एक आपराधिक मुकदमे में संदेह चाहे कितना भी मजबूत क्यों न हो, उसे सबूत की जगह लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। इसलिये हो सकता है और होना चाहिए के बीच की मानसिक दूरी अस्पष्ट अनुमानों, निश्चित निष्कर्षों में गौर करना होगा। किसी आपराधिक मामले में यह सुनिश्चित करना न्यायालय का कर्तव्य है कि मात्र अनुमान या संदेह कानूनी सबूत की जगह न ले लें। किसी अभियुक्त को दोषी ठहराए जाने से पहले, सच्चा हो सकता है और सच्चा होना चाहिए के बीच की बड़ी दूरी को अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत स्पष्ट, ठोस और निर्विवाद साक्ष्य के माध्यम से कवर किया जाना चाहिए। हाईकोर्ट ने इस नसीहत के साथ निचली अदालत से फांसी की सजा पाए दो अभियुक्तों की सजा को रदद कर दिया।
मामले के अनुसार अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश रुद्रप्रयाग ने 2 दिसम्बर 2018 व 4 दिसम्बर 2018 को लूट व हत्या के दो आरोपियों सत्येश कुमार उर्फ सोनू व मुकेश थपलियाल को फांसी की सजा सुनाई थी। इन पर ग्राम लिस्वालता पट्टी कोट बंगर रुद्रप्रयाग निवासी महिला सरोजनी देवी के घर में डकैती करने, सरोजनी देवी की हत्या करने व लाश घर के पीछे छुपाने का आरोप था। लेकिन इस घटना का कोई चश्मदीद गवाह नहीं था। लेकिन लूटे गए कुछ जेवरात व रुपये आरोपियों के पास मिले थे। मृतका के पुत्र विजय रावत ने घटना की प्राथमिकी 6 अप्रैल 2017 को अज्ञात लोगों के खिलाफ पट्टी पटवारी के समक्ष दर्ज कराई थी। विजय रावत मुंबई में रहता था, जिसे चार अप्रैल को अपनी मां के गायब होने की सूचना मिली थी, जिसके बाद वह गांव लौटा था। जबकि उसके पिता त्रिलोक सिंह व संजय युगांडा में थे। निचली अदालत से मिली सजा के खिलाफ सत्येश कुमार उर्फ सोनू व मुकेश थपलियाल ने हाईकोर्ट में अपील की थी। इस मामले में हाईकोर्ट ने गवाहों के बयानों को गम्भीर सन्देह पैदा करने वाला बताया और अपीलकर्ताओं ने ही महिला की हत्या की गई हो ऐसा विश्वास नहीं होना पाते हुए कहा कि गंभीर संदेह भी प्रमाण का स्थान नहीं ले सकता।
हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश न्यायमूर्ति रितू बाहरी व न्यायमूर्ति आलोक वर्मा की खंडपीठ ने इस मामले की सुनवाई आठ मई को पूरी कर फैसला सुरक्षित रख लिया था। जिस पर छह अगस्त को निर्णय दिया गया। खंडपीठ ने रिकॉर्ड पर मौजूद सभी मौखिक और दस्तावेजी साक्ष्यों की प्रकृति और गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए आई पी सी की धारा 302, धारा 34 आईपीसी, धारा 392 आईपीसी और धारा 201 के साथ पढ़ी जाने वाली धारा 302 आईपीसी के तहत अपीलकर्ताओं की सजा को रदद कर उन्हें तुरंत रिहा करने के आदेश दिए हैं।