तराई के किसानों की इस समय बड़ी दुर्दशा सी हो गई है। सरकार उनकी आय दुगुनी करने के दावे करने की हिम्मत कैसे कर रही है यह वह जाने लेकिन सच यह है कि किसान अपनी लागत तक नहीं निकाल पा रहे हैं। सरकारी क्रय केंद्रों में उनकी और उनकी उपज की सरकारी सिस्टम की ओर से बेक्रदी कर उनकी उम्मीदों में पानी फेरने में कोई कसर नहीं की जा रही है।
महीनों से नया सलवार-सूट पहनने की आस लगाए बैठी
किसान की बेटी के दिल की हुलकार को सुनो !
ऊधमसिंहनगर में किसानों की हालत बेहद खराब है। सरकार और राइस मिलर्स की रार में वे पिस रहे हैं। धान उगाने, फसल काटने और मढ़ाई के बाद जब धान मंडी आ रहा तो उसे खरीदा ही नहीं जा रहा है। किसान की बेकद्री हो रही है। उसे धरने पर बैठना पड़ रहा है। अपने हाथों से फसल जलानी पड़ रही है। सत्ता खामोश और बेबस सी ही नजर आ रही है। हद है यहां किसानों को उसकी मेहनत से उगाई उपज का सही दाम नहीं मिल रहा, वहीं उसकी आय दोगुनी करने की योजनाएं चल रही है। मजाक बना रखा है इस लाचार सिस्टम ने किसानों का।
किसानों के हालातों पर उमेश चैहान की लिखी ये कविता सटीक बैठती है–
पैदा हुए उन्नीस बोरे धान
मन में सज गए हजारों अरमान
लेकिन निर्मम था मण्डी का विधान
ऊपर था खुला आसमान
नीचे फटी कथरी में किसान
रहा वह कई दिनों तक परेशान
फिर भी नहीं बेच पाया धान
भूखे-प्यासे गई जान
सुनो, यह दुरूख-भरी दास्तान !
सुनो कि इस देश में कैसे मरता है किसान !
मेरे देश के हुक्मरानो !
यहाँ के आला अफसरानो !
गाँवों और किसानों के नुमाइन्दो !
चावल के स्वाद पर इतराने वाले
छोटे-बड़े शहरों के बाशिन्दो !
सुनो, सुनो, सुनो !
ध्यान लगाकर सुनो !
सच को स्वीकारने की इच्छा है तो सुनो
सुनो, कि वह पीने का पानी खोजते-खोजते
मंडी के पड़ोस वाले घर तक पहुँचकर भी
प्यास से तड़पकर मर गया यह केवल आधा सच है
पूरा सच यही है कि उसे बड़ी बेदर्दी से मार डाला
हमारी गैर-संवेदनशील व्यवस्था ने
मेरी और आप सबकी निर्मम निस्संगता ने ।
यह देश की किसी मंडी का कोई इकलौता जुर्म नहीं था
यह धान को बारिश के कहर से बचाने की
देश के किसी अकेले किसान की जद्दोजहद नहीं थी
यह देश में सरकारी गल्ला-खरीदी की नाकामी की
कोई अपवाद घटना नहीं थी
यह महानगरों में हजारों करोड़ रुपयों के पुल बनाने वाले इस देश में
बिना किसी शेड के संचालित कोई इकलौती मण्डी नहीं थी
यह पेशाबघर, खान-पान और पेयजल की सुविधा के बिना ही स्थापित
देश का कोई अकेला सरकारी सेवा-केन्द्र नहीं था
यह कोई अकेला वाकया नहीं था भारत का
जिसमें किसी सार्वजनिक जगह पर
अपने माल-असबाब की रखवाली करते-करते
भूख और प्यास से मर गया हो कोई इन्सान
नबी दुर्गा की मौत तो बस उसी तरह की लाचारी के माहौल में हुई
जिसमें इस देश में रोज बेमौत मरते हैं हजारों बदक़िस्मत किसान ।
उस दिन भूख-प्यास से न मरा होता तो
शायद सरकारी ख़रीदारों के निकम्मेपन के चलते
पानी बरसते ही धान के भीगकर सड़ जाने पर मर जाता नबी दुर्गा
या शायद तब,
जब ख़रीद के बाद उसके हाथ में थमा दिए जाते
उन्नीस के बजाय बस पन्द्रह बोरे धान के दाम
या फिर तब,
जब उसे एक हाथ से उन्नीस बोरे धान की क़ीमत का चेक देकर
दूसरे हाथ से वापस रखा लिया जाता
बीस फीसदी नकदी वापस निकाल लिए जाने का चेक
यदि नबी दुर्गा न भी मरा होता मंडी में उस दिन
और उसके साथ बिना बिके ही वापस लौट आए होते उसके धान के बोरे
तो शायद पूरा परिवार ही पीने के लिए मजबूर हो गया होता
खेत में छिड़कने के लिए उधार में लाकर रखी गई कीटनाशिनी।
हमारा पेट भरने को आतुर दानों से लदी
हवा में सम्मोहक खुशबू घोलती
धान की झुकी हुई बालियों की विनम्र सरसराहट को सुनो !
काट-पीटकर सुखाए गए दानों को बोरों में भर-भरकर
ब्याही गई बेटी को विदा किए जाने के वक़्त से भी ज्यादा दुरूखी मन से
मण्डी में बेंचने के लिए ले जाते हुए किसानों के मन की व्यथा को सुनो !
धान के बिकने का इन्तजार करती
बिस्तर से लगी किसान की बूढ़ी बीमार माँ की
प्रतीक्षा के अस्फुट स्वर को सुनो !
पैरों में चाँदी की नई पायलें पहनने को आतुर
किसान की पत्नी के मन में गूँजती रुन-झुन को सुनो !
महीनों से नया सलवार-सूट पहनने की आस लगाए बैठी
किसान की बेटी के दिल की हुलकार को सुनो !
इस दुख भरी दास्तान को बार-बार सुनो !
चंदन बंगारी वरिष्ठ पत्रकार, रुद्रपुर

