बाजार में दम घुटा जा रहा है, सड़कें तक सामान से पटी हैं, व्यापारियों ने इतना बेतरतीब माल भर लिया है कि इसकी भरपाई मुश्किल है। शोर ऐसा कि कोई किसी की सुनने को तैयार नहीं। जरा अफवाह भी फैली तो भारी नुकसान तय हैे।..ये भीड़ बढ़ाता कौन है???
…एक महीने से किसानों का धान नहीं बिका, जो बिका उसका भुगतान नहीं हुआ। नई फसल की तैयारी की चिंता सता रही है। सरकारी तौल केंद्रों में भारी अव्यवस्था इसलिए फैलाई गई है कि ज्यादा किसान यहां न पहुंच सकें। राइस मिलर और आढ़ती आधी कीमत पर धान खरीदना चाहते हैं। दिवाली की खरीददारी का उनके लिए कोई मायने नहीं है।
…छोटे किसान साल-छह महीने का भोजन जुटाने में व्यस्त हैं। गांव के लोग बाजार की इस चमक-दमक से कोषों दूर हैं। गांव के बाजारों में कोई खास रौनक नहीं है। खील-बतासे और पांच दीये ही इनकी दिवाली है।
…भारी संख्या में घूम रहे बेरोजगार युवा अपनी जरूरत की चीजों के लिए भी मां-बाप से रुपए मांगने में शर्मसार हैं। उनके सपनों की दिवाली जीवन में कब आएगी, ये उदासी उनको बाजार नहीं आने देती।
…मजदूर दिनभर दिहाड़ी में व्यस्त हैं। परिवार के बच्चे आसमान में चमकती राकेट की रोशनी देख और कान फोड़ते धमाके सुनकर ही संतोष कर लेते हैं। कमाई इतनी ही है कि बस जीवन चल जाए।
…बड़े लोगों की रोज ही दिवाली है, वे भी इस बाजार में नहीं आते। उनकी जरूरत की चीजों के लिए बाजार ही दूसरा है।
—भीड़ में शामिल ये शहरी मध्यम दर्जे के लोग ही हैं जो बाजार के खिलौने हैं। ये खुद लुटते हैं और कम आमदनी वालों को भी लुटने के लिए उकसाते हैं। यही लोग अनजाने में बड़ी कंपनियों के मुफ्त के प्रचारक बन बैठते हैं। हर पर्व को बाजार तक घसीटने में इनका बड़ा योगदान है। … चुपके से गर सच कहूं तो हालत इनकी भी बड़ी खराब है गुरु, पर दिखावे में ये माहिर हैं …यहां मस्त कौन है, सबका निकला दिवाला है..
—-सभी के जीवन में खुशियां लाए दिवाली —-
चंद्रशेखर जोशी, हल्द्वानी
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)